छत्तीसढ़ के इस स्थान में गिरा था माता सती का दांत जानें इसकी पूरी कहानी…

By Rashi Sahu

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छत्तीसगढ़ में तो वैसे बहोत सारे से सुन्दर पर्यटक जगह है हर कोई अपने अपने मान्यताओं के आधार है प्राचीन मंदिर के पीछे का कोई कोई रहस्य छिपा छुआ है ऐसे ही बस्तर में कई सारे प्राकृतिक स्थल हैं जो पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं लेकिन इन सभी के अलावा मां दंतेश्वरी मंदिर भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस मंदिर के दर्शन करने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं।

अगर आप दंतेश्वरी मंदिर के दर्शन से पहले वहाँ के इतिहास, वहाँ की मान्यताओं और मंदिर प्रांगण में स्थित स्तम्भ, मूर्तियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के बाद जायेंगे तो आपको एक अलग ही अनुभूति होगी। मंदिर के आसपास की हरियाली, स्वच्छ और शांत वातावरण आपके मन को सुखद अहसास करायेंगे।

तन्त्रचूडामणि में है 52 शक्तिपीठों का वर्णन-

देवी पुराण’ में शक्ति पीठों की संख्या 51 बताई गई है, जबकि’ तन्त्रचूडामणि’ में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। कुछ धर्मग्रंथों में इनकी संख्या 108 तक बताई गई है। ऐसा ही प्राचीन और पौराणिक देवी मंदिर छत्तीसगढ़ के बस्तर में भव्य और चमत्कारिक स्वरूप में स्थित है।

इस मंदिर में विराजित माता को दंतेश्वरी देवी कहा जाता है। दन्तेवाड़ा को हालांकि देवी पुराण के 51 शक्ति पीठों में शामिल नहीं किया गया है लेकिन इसे देवी का 52 वा शक्ति पीठ माना जाता है। मान्यता है की यहाँ पर सती का दांत गिरा था इसलिए इस जगह का नाम दंतेवाड़ा और माता क़ा नाम दंतेश्वरी देवी पड़ा।

चलिए जानते है दंतेश्वरी मंदिर का इतिहास

भारत के प्राचीन मंदिरों में नरबलि की प्रथा सदियों पुरानी है। सख्त कानून के कारण अब नरबलि की प्रथा बंद कर दी गई है। छत्तीसगढ़ में भी एक प्राचीन मंदिर ऐसा है जहां देवी को प्रसन्न करने के लिए नरबलि दी जाती थी दंतवोड़ा के प्राचीन दंतेश्वरी मंदिर को देश का 52वां शक्तिपीठ माना जाता है।

वारंगल राज्य के राजा अन्नम देव ने चौधरी शताब्दी में दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर के निर्माण के बाद कई राजाओं ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। सबसे पहले वारंगल के अर्जुन कुल के राजाओं ने करवाया उसके बाद वर्ष 1932-33 में महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी ने जीर्णोद्धार करवाया। इस मंदिर से संबंधित कई सारी किवदंतियां प्रचलित है

ऐसा माना जाता है कि अन्नमदेव वारंगल से जब यहां आए तो उन्हें दंतेश्वरी माता का वरदान मिला था की जहां तक अन्नमदेव और उनके पीछे देवी आयेंगी जहाँ तक अन्नमदेव पैदल जायेंगे वहां तक उनका राज्य का विस्तार होगा लेकिन एक शर्त यह थी कि वो पीछे मुड़कर नहीं देख सकते हैं अगर पीछे मुड़कर देखते हैं तो वहां पर देवी को स्थापित करना होगा।

अन्नमदेव कई दिन और रात तक चलते रहे जब चलते-चलते डंकिनी शंखनी नदी के संगम पर पहुंचे तब नदी के जल में डूबे पैरों में पायल की आवाज़ पानी के कारण नहीं आ रही थी तो अन्नमदेव ने पीछे मुड़कर देखा। जिसके बाद देवी ने आगे बढ़ने से मना कर दिया। वचन के अनुसार माता के लिए अन्नमदेव ने डंकिनी शंखिनी के संगम के निकट एक मंदिर बनवा दिया तब से माता की मूर्ति वहीं विराजमान है।

ऐसा कहा जाता है की इस मंदिर में प्रवेश से पहले सोला या धोती धारण करना होती है। मंदिर में सिलाई किए कपड़े पहनकर प्रवेश करना वर्जित है।

फाल्गुन में होता है मड़ई उत्सव का आयोज़न

होली से दस दिन पूर्व यहां फाल्गुन मड़ई का आयोजन होता है, जिसमें आदिवासी संस्कृति की विश्वास और परंपरा की झलक दिखाई पड़ती है। नौ दिनों तक चलने वाले फाल्गुन मड़ई में आदिवासी संस्कृति की अलग-अलग रस्मों की अदायगी होती है। मड़ई में ग्राम देवी-देवताओं की ध्वजा, छत्तर और ध्वजा दण्ड पुजारियों के साथ शामिल होते हैं।

करीब 250 से भी ज्यादा देवी-देवताओं के साथ मांई की डोली प्रतिदिन नगर भ्रमण कर नारायण मंदिर तक जाती है और लौटकर पुनरू मंदिर आती है। इस दौरान नाच मंडली की रस्म होती है, जिसमें बंजारा समुदाय द्वारा किए जाने वाला लमान नाचा के साथ ही भतरी नाच और फाग गीत गाया जाता है।

मांई जी की डोली के साथ ही फाल्गुन नवमीं, दशमी, एकादशी और द्वादशी को लमहा मार, कोड़ही मार, चीतल मार और गौर मार की रस्म होती है। मड़ई के अंतिम दिन सामूहिक नृत्य में सैकड़ों युवक-युवती शामिल होते हैं और रात भर इसका आनंद लेते हैं। फाल्गुन मड़ई में दंतेश्वरी मंदिर में बस्तर अंचल के लाखों लोगों की भागीदारी होती है।

पौराणिक कथा के अनुसार माता सती के गिरे थे दांत

इस शक्ति पीठ के विषय में एक प्राचीन कहानी बताई जाती है। कहा जाता है कि सतयुग में जब राजा दक्ष ने यज्ञ कराया तो उन्होंने भगवान शंकर को इसमें आमंत्रित नहीं किया गया। सती राजा दक्ष की पुत्री थीं तो उन्होंने अपने पति के इस अपमान से क्षुब्ध होकर अपने पिता के यज्ञ कुंड में खुद की आहुति दे दी। जब भगवान शंकर को इस बारे में पता चला तो वह सती का शव अपनी गोद में लेकर पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा करने लगे।

भगवान शिव के इस क्रोधित रूप से प्रलय की आशंका को देखते हुए भगवान विष्णु ने चक्र चलाया और सती के शव को खंडित कर दिया। इस दौरान जिन-जिन स्थलों पर सती के अवशेष गिरे, वहां शक्ति पीठों की स्थापना हुई। उनमें से दंतेवाड़ा एक है। कहा जाता है कि यहां माता सती के दांत गिरे थे।

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